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भटकती आत्मा भाग - 13

  भटकती आत्मा भाग   – 13 

"यह क्या पागलपन है न खाना न पीना दिन रात अस्पताल में पड़ी रहती हो"| - क्रोधित होते हुए कलेक्टर साहब ने कहा |
  "मैं क्या करूं पापा, मेरा मन खाने को नहीं करता है"|
  "तुमको उस काले आदिवासी से लव हो गया है क्या"?
   "आप जो भी समझें पापा"|
   "नॉनसेंस मैं यह कभी सहन नहीं कर सकता"|
   "लव बुरा तो नहीं होता,उसने मेरा जान बचाया था; मैं क्या इस बात को भूल जाऊं"?
  मैं भूलने की बात नहीं करता,परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि तुम उससे प्यार करने लगो"|
   "दिल पर किसी का बस नहीं होता, प्रेम जातीयता को नहीं देखता"|
  " ईडियट ¡ यह कभी नहीं होगा, तुम अब अस्पताल नहीं जाओगी | मेरी बदनामी हो रही है"|
   "मुझे यह मालूम नहीं था कि आप इंसानियत को भूल जाएंगे"|
   ओ डोंट बी सिल्ली। मैं इंसानियत को समझता हूं,परन्तु वह सीमा के अंदर ही हो"|
  "मैं उससे प्यार करती हूं,उसके लिए मैं मर जाना भी पसंद करूंगी | आप मुझे नहीं रोक सकते"|
  "तुम्हारी यह हिम्मत | आज से देखता हूं तुम अस्पताल कैसे जाती हो"|
  "आप मुझे अस्पताल जाने से रोकेंगे पापा ? फिर जरा आप सोचिए कि वह वहां कैसे रहेगा"?
   "वह रहे चाहे मरे,तुम को इस से कोई मतलब नहीं होना चाहिए | चुपचाप घर में रहो और बाहर निकलने की कोशिश मत करना,नहीं तो मैं तुमको कमरे में बंद कर दूंगा"|
   "आप जो भी करें पापा मैं उसको ऐसे नहीं छोड़ सकती"|
   "नॉनसेंस!शेमलेस! पापा से मुंह लगाती है"!
पैर पटकते हुए कलेक्टर साहब बंगले से बाहर चले गए।
   कई दिनों के बाद मैगनोलिया अस्पताल से बंगला पर आई थी। वह तो आना नहीं चाहती थी,जबरदस्ती मनकू ने उसको भेजा था। मैगनोलिया का विचार था कि  फ्रेश होकर वह फिर हॉस्पिटल चली जाएगी। कुछ फ्रूट भी खरीदेगी मनकू के लिए। परन्तु यहां तो आते ही अपने पापा  से उसका सामना हो गया था। उसका मन  खिन्न हो गया।

          -     ×      -      ×    -

  आज मनकू अकेला ही अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा था, उसके पास  मैगनोलिया नहीं थी | उसको आज मनकू  ने दबाव डालकर घर भेजा था। एकांत में मनुष्य का मस्तिष्क अधिक तीव्रता से काम करता है। कल्पना कली विहंसने लगती है l मनकू माझी भी अपने और मैगनोलिया के संबंध में सोच रहा था - क्या होगा उनके प्यार का अंजाम | यह दोनों कभी एक नहीं हो सकेंगे - उसमें दो मत नहीं, फिर क्यों मिलते हैं,यह दोनों ?  किस आशा पर प्रेम का अंकुर अब पल्लवित और पुष्पित हो चला है ? दिल पर अपना वश क्यों नहीं होता, विरह व्यथा मैं आजीवन जलना होगा, फिर क्यों प्यार के झूले पर झूलते जा रहे हैं ? क्यों नहीं अपना नाता मैगनोलिया से तोड़ लेता है वह ? लेकिन दिल का बंधन इतना आसान नहीं है कि जब चाहे तोड़ ले। नहीं यह बंधन कभी नहीं टूटता ... कभी नहीं.... कभी नहीं....
  " बेटा अब कैसी तबीयत है"?  -   पिता की इस आवाज ने मनकू के विचार  सरिता में मानो एक कंकड़ सा मारा।
  वह विस्मित का समीप खड़े पिता के मुख का अवलोकन करने लगा। दृष्टि पथ में जानकी भी दु:ख की प्रतिमा बनी खड़ी नजर आई | वह होले से मुस्कुराया और शब्दों के मोती बिखेरने लगा - 
  "मैं... मैं... ठीक ही हूं बाबा"| 
"मेरे लाल, तुम्हारे तो दोनों हाथ और पैर नाकाम हो गये हैं"|
   "हां बाबा लेकिन आप परेशान न हों अब कुछ दिनों में ही ठीक हो जाएगा"|
   "अच्छा, चलो तब तो ठीक है। लेकिन तुमको तो दैनिक कार्य करने में भी कठिनाइयां होती होंगी"?
" नहीं बाबा मैगनोलिया सब कुछ संभाल लेती है"|
   कौन मैगनोलिया, वह साहब की बेटी" ? 
   "हां बाबा"|
   "अरे वह क्यों तुम्हारी इतनी सेवा करती है भला"? -   विचार मग्न होता हुआ वृद्ध  खड़ा रह गया था। जानकी की आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी थी। कुछ निर्णय सा लेता हुआ वृद्ध ने कहा - 
   "नहीं बेटा उससे इतना मेलजोल अच्छा नहीं है,तुम्हारा भविष्य अंधकारमय हो जाएगा"।
   "यह कैसे संभव है बाबा, यह नहीं हो सकता"। - अचानक मनकू के मुख से आवाज निकली।
    "तुम शायद नहीं जानते इसका दुष्परिणाम, उससे मिलना छोड़ दो बेटा"।
   " मेरे दिल पर मेरा अधिकार होता बाबा तो मैं जरूर आपकी बातों को मानता, परंतु बेलगाम दिल को कैसे समझाऊं, बाबा | यह शायद मुझसे नहीं हो सकेगा। नहीं -  कभी नहीं"   -  मनकू के होंठ हिले, परंतु आवाज उसके दिल में ही रही होठों के बाहर नहीं आ पाई । और धीरे-धीरे मनकू की आंखें बंद हो गईं। 
  "आज से जानकी तुम्हारी सेवा में रहेगी | मैं भी आता रहूंगा,उस लड़की को अपने पास रखने की आवश्यकता नहीं, समझे" | 
"जैसी आपकी इच्छा बाबा"  -  कहता हुआ मनकू के चेहरे पर मुर्दनगी छा गई। गहन निराशा की एक मोटी परत सी छा गई थी उसके मुख पर।
   
                                   
  
     -     ×    -      ×     -      ×      -
      

         
      दो बजे का समय था मैगनोलिया फ्रेश होकर घर से बाहर कदम रखने लगी तभी कलेक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ी - 
   "कहां जा रही हो मैगनोलिया"? कलक्टर साहब ने शब्द बाण छोड़ा। आश्चर्यचकित सी मैगनोलिया बरामदे के एक कोने में बैठे हुए अपने पापा को देखने लगी। उसको यह उम्मीद नहीं थी कि पापा अभी तक बंगला में ही होंगे। सहसा उसके कंठ से आवाज नहीं निकली, फिर किसी तरह संयमित होकर बोली -   "मैं अस्पताल जा रही हूं पापा"।
   " मैंने तो तुम्हें मना किया था"|
कलेक्टर साहब की आंखें क्रोध से लाल हो गयीं।
     "मुझे जाने दीजिए पापा, वह भूखा प्यासा होगा" -  अनुनय पूर्ण वाणी में  मैगनोलिया ने कहा l 
   "नहीं तुम अब वहां नहीं जाओगी, मैं बदनाम हो रहा हूं"|
   " बदनामी के भय से क्या आप इंसानियत को भूल जाइएगा"?
  नहीं उस काले आदमी से ज्यादा मेलजोल तुम्हारे हित में अच्छा नहीं है"|
  " मैं उसको प्यार करती हूं,और शादी भी उसी से करना चाहती हूं"|
  "यह कभी नहीं होगा - समझी!मैं यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता"!
  " यह होगा पापा! अवश्य होगा! आप  हमें नहीं रोक सकते"|
  "शटअप नॉनसेंस,आगे मैं कुछ सुनना पसंद नहीं करूंगा"|
  "आप मत सुनिए लेकिन मैं तो अभी  जाऊंगी ही"|
  " इडियट, एक कदम भी आगे बढ़ाया तो अच्छा नहीं होगा" -  कहते हुए कलेक्टर साहब उठ खड़े हुए।
  मैगनोलिया पैर पटकती हुई आगे बढ़ने लगी,परन्तु दो हाथों ने उसको रोक लिया l जबरदस्ती घसीटते हुए मैगनोलिया को एक कमरे में कलेक्टर साहब ले गए। चीखती-चिल्लाती ही रह गई मैगनोलिया | एक कमरे में धकेल कर कलेक्टर साहब ने बाहर से कपाट बंद कर दिया |
  मैगनोलिया अर्ध चेतनावस्था में कमरे में ही पड़ी रह गई। अगर झूठ का सहारा मैगनोलिया ने लिया होता तो उसकी यह दशा शायद नहीं होती,परन्तु उस आंग्ल बाला की यही तो विशेषता थी। वह झूठ नहीं बोल सकती,छल कपट तो उसके दिल को छू भी नहीं गया है। इसी विशेष गुण के कारण तो मनकू माझी अपना दिल शायद मैगनोलिया को दे बैठा था। परन्तु अधिकतर आंग्ल पुरुष के गुण ठीक इसके विपरीत होते हैं। वह अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए झूठ भी बोल सकता है। छल-कपट तो वसीयत के रूप में अपने पिता से उसको प्राप्त होता है। इस समय कलेक्टर साहब पुनः बाहर बरामदे में आ बैठे थे । उनका दिमाग बहुत ही तीव्रता से काम कर रहा था, उनके मन में एक विचार आया और मुख पर रहस्यमयी मुस्कान थिरकने लगी l

           क्रमशः 

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